जब प्यार केवल एक शब्द ही नहीं संरचना का आधार हो।
'लाइब्रेरी' शब्द का अर्थ यदि किसी कोष में जाचें या फिर इस शब्द को सुनने पर अपने दिमाग को जो समझ आये वह है - एक कमरा या एक बिल्डिंग जिसमें ढेर सारी किताबें अलमारियों में सजी पड़ी हैं। सोच को यदि और आगे ले जाएँ तो इस चित्र का एक और पहलू ज़हन में उभरता है - इस कमरे में कुछ मेज़ पड़े हैं, कुर्सियों से घिरे हुए। शायद दो चार लोग भी बैठे हैं, एक-दो लोग अलमारी के आगे खड़े अपनी पसंद की किताब ढूँढने की चेष्टा में हैं। लाइब्रेरियन अपनी मेज़ के आगे बैठे खाली समय से जूझ रही है। रौशनी जो बिजली की तारों से आ पहुँच कमरे को प्रज्जवलित कर रही है, किताबों के नाम तथा उनके लेखक को पढ़ पाने में समर्थता नहीं दे पा रही। छत पर पंखा धीरे-धीरे घूमता हुआ, हवा कम और आवाज़ ज़्यादा दे रहा है। अलमारी में सजी गहरे रंग की बाइंडिंग में भारी किताबें, थोड़ी धुलित सीं, चाहते हुए भी अपनी दबी आवाज़ को पाठकों तक नहीं पहुँचा पा रहीं।
लाइब्रेरी का चित्र मेरे दिमाग में ऐसा कब और क्यों बन गया, मुझे याद भी नहीं ? क्या वाकई पुस्तकों से लोगों को उदासीनता हो गई है ? क्या नए दौर में कागज़, कलम, शब्दों का कोई महत्व नहीं है ? जो सपने मैंने किताबें पढ़-पढ़ कर सजाये, आने वाली पीढ़ी क्या अपने सपने बुन पायेगी ? उन्हें सपने देखने की, कल्पना को उड़ान देने की, दुनिया और मानवता को समझने और महसूस करने की प्रेरणा कहाँ से मिलेगी ? यही सवालों से घिरे दिमाग को शाँत करने की कोशिश में एक दिन मैंने खुद को पाया दक्षिण दिल्ली की एक पॉश कॉलोनी से निकलते हुए ऐसे इलाके में, जो चकाचौन्ध भरे शहर की गहमागहमी से छुपा छोटी छोटी गलियों में बसता है। जहाँ कार, स्कूटर, साइकिल, ठेले, कबाड़ी वाले, पैदल यात्री सब एक दुसरे से बचते हुए अपना रास्ता ना जाने कैसे बना लेते हैं। ऐसी ही एक कॉलोनी, पंचशील विहार में, मैं "दीपालय कम्यूनिटी लाइब्रेरी" को ढूँढते हुए पहुँची।
उस दिन मैं नहीं जानती थी कि मेरे उन सब सवालों का जवाब मुझे इस छोटे से स्कूल में स्थित इस लाइब्रेरी में मिलने वाला है। उस दिन मैं यह भी नहीं जानती थी कि आने वाले दो वर्षों में वहां वालंटियर बन कर मैं उस लाइब्रेरी का एक अभिन्न हिस्सा बन जाऊँगी और लाइब्रेरी के सदस्यों को एक नई दिशा की ओर रुख देते-देते, मेरी मामूली सी ज़िन्दगी को भी एक दिशा मिल जाएगी।
आओ बात करें इस लाइब्रेरी की, दीपालय कम्यूनिटी लाइब्रेरी की।
यहाँ सब का स्वागत है। जी हाँ, सब का। पर 'सब का' से अभिप्राय क्या ? माने - सब का - छोटे, बड़े, नौजवान, अधेड़, बूढ़े, किसी भी वर्ग से, किसी भी धर्म से, किसी भी सोच के या फिर सोच की तलाश में, पढ़े-लिखे या फिर वह जो अभी अक्षरों से पहचान बना रहे हैं, सभी का स्वागत है। जी हाँ, यकीन मानिये, यहाँ कहने में और करने में कोई अंतर नहीं क्योंकि यह लाइब्रेरी चलती है प्यार से, और इस 'प्यार से' की अभिव्यक्तियाँ बहुत हैं।
लाइब्रेरी के खुलने से पहले ही जब हमारे छोटे-छोटे मेंबर्स की कतार गेट के बाहर लग जाती है। कड़कती धूप हो, या बारिश का पानी बाहर गली में जमा हो, या फिर ठण्ड में हाथ सुन्न हो रहें हों, अपनी-अपनी किताब थामे दीपालय लाइब्रेरी के सदस्य बेहद उत्सुकता से खड़े इंतज़ार कर रहे दिखाई देते हैं। कब लाइब्रेरी खुले और कब वो एक नई किताब पढ़ने के लिए ले सकें ! उन्हें यहाँ क्या खींच कर ले आता है
किताबों का प्यार या फिर लाइब्रेरी का माहौल, जहाँ की हवा में ही प्यार की सुगंध है।
जब अंजलि, रोज़ी, साहिल, खुशबू बार-बार मुझ से पूछने आते है, "मैडम, आप कहानी सुनाओगे ना ?", "कितने बजे सुनाओगे ?", "हम अभी किताब बदल कर आते हैं, हमारा इंतज़ार करना ।” प्यार से सुनाई गई कहानी ने ही उनमें कहानियों के प्रति प्यार पैदा किया है।
रीडिंग रूम में पढ़ते हुए जब पीछे से सोनी आकर मुझे चुपके से चुटकी काट कर धीमे से मेरे कान में आ कर बोल कर जाती है, "मैडम, आज मेरी 75 किताबें हो गईं।" यह सोनी का पढ़ने से प्यार है याकि मेरे से लगाव या फिर, इस लाइब्रेरी के लिए पैदा हुआ प्यार का एक भाव।
एक रीड-अलाउड के दौरान जब कहानी सुनाते हुए एक वाक्य आया कि, "पिताओं को अपनी बेटियों से अधिक प्यार होता है", तो अंजली को सिर नीचे किये रोता हुआ पाया। कहानी छोड़ कर जब उससे कारण पुछा तो सिर हिला कर बोली कि, "नहीं, पिता तो अपने बेटों से ही ज़्यादा प्यार करते हैं।" यह वही अंजली थी जो सदा हँसती-खेलती दिखती थी। क्या लाइब्रेरी में पाये गए अपनत्व ने उसके अंदर की टीस को बाहर ला निकाला था?
ऐसे किस्से ना जाने कितने हैं जो इस 'प्यार से' का एहसास दिलाते हैं। बस इतना ही कहना है कि दीपालय कम्यूनिटी लाइब्रेरी ने इस शब्द को केवल शब्द होने तक सीमित नहीं रहने दिया। प्यार को सबने अपने आचरण में उतार कर इस पुस्तकालय को एक अनोखी और सही मायने में लाइब्रेरी क्या होनी चाहिए, वह पहचान दी है।
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