आजकल, मैं अक्सर विशेषाधिकार के बारे में सोचती हूँ।
विशेषाधिकार या विशेष अधिकार का मतलब हुआ — किसी एक व्यक्ति के पास किसी अन्य व्यक्ति के मुकाबले अधिक अधिकारों का होना। मैं अमेरिका के मिनेसोटा राज्य से हूँ, जहां एक महीने पहले ही जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक व्यक्ति की पुलिसकर्मी ने हत्या कर दी। इस हत्या के बाद पुरे अमेरिका में नस्ल (रेस), नस्लवाद (रेसिस्म), और विशेषाधिकार (प्रिविलेज) के बारे में चर्चा छिड़ गई है। मैं भी इन दिनों इन्हीं विषयों के बारे में पढ़ रही हूँ, विचार कर रही हूँ, और अपने दोस्तों व परिवार वालों के साथ बात-चीत कर रही हूँ। मैं अपने खुद के विशेषाधिकार को समझने व पहचानने की कोशिश कर रही हूँ, और इस असंतुलन को नियमित करने के तरीके खोज रही हूँ। यह मसला मेरे पेशे या काम-काज से भी जुड़ा है।
मैं एक लाइब्रेरियन हूँ और इस पेशे में मेरे अपने विशेषाधिकार से अच्छी तरह परिचित हूँ। मैंने ज़्यादातर प्राइवेट अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में काम किया है, जहां ऐसे छात्र आते हैं जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से संपन्न होते हैं और अपने बच्चों की शिक्षा को महत्व देते हैं। मुझे किताबें खरीदने के लिए और लाइब्रेरी सँभालने के लिए आराम से पैसे मिल जाते हैं। अगर मुझे लगता हैं कि मेरे छात्रों को किसी भी चीज़ की आवश्यकता हैं, मैं आसानी से उन चीज़ों को खरीद सकती हूँ। मैंने ऐसे लाइब्रेरियों में काम किया है, जो मेरे आने से पहले ही अच्छी तरह से स्थापित थी, और इन पुस्तकालयों के प्रशासकों ने मेरे फैसलों पर भरोसा किया। अगर मुझे कभी लगा की कुछ बदलाव हमारी सेवाओं में सुधार लाएंगी, तो मुझे ऐसे बदलाव करने की पूरी छूट थी।
इन दिनों TCLP के लाइब्रेरियन मुझसे सलाह मांग रहे हैं क्योंकि वे साउथ एक्सटेंशन लाइब्रेरी को सर्कुलेशन के लिए तैयार करने में जुटे हुए हैं। मैं अपने आप को इस काम के लिए अयोग्य महसूस करती हूँ, क्योंकि मुझे कभी भी ईंट पे ईंट बटोरकर लाइब्रेरी बनाने का अवसर नहीं मिला। और मुझे थोड़े ग्लानि का एहसास भी होता है। जब वे मुझसे बहुत पते के सवाल पूछते हैं, जैसे कि, पुस्तकों को अपनी नई लाइब्रेरी में किन शेल्फों में कहाँ रखना चाहिए, तो मेरा जवाब ज़्यादातर यह होता हैं - "यह (कई चीज़ों पर) निर्भर करता है।" मुझे पता है कि किसी भी पुस्तकालय के लिये कौन सी किताबें चुनी जाएँ और उन किताबों को किस तरह से शेल्फों में रखा जाए, उसका सर्वप्रथम लक्ष्य यह हैं की मेंबर्स को जो भी किताब चाहिए वह उन्हें आसानी से मिल जाए। यह कैसे किया जाए, इसके कोई भी पक्के नियम नहीं हैं। एक लाइब्रेरियन को केवल वही करना चाहिए जिससे उसके मेंबर्स का फायदा हो और वे जिस भी चीज़ के बारे में पढ़ना चाहते हों उससे सम्बंधित किताब उन्हें मिल जाए। इस काम में आप ग़लतियाँ करने से कभी न डरें।
ड्युई डेसीमल सिस्टम (DDS) कई स्कूल लाइब्रेरिओं के लिए एक सामान्य संगठनात्मक उपकरण -- यानी, किताबों को किस प्रकार से शेल्फों में रखना चाहिए, इसको निर्धारित करने का तरीक़ा – है। (DDS में कॉल नंबर के द्वारा पुस्तकों को संगठित किया जाता है।) मैंने जिन-जिन भी पुस्तकालयों में काम किया है वहाँ ड्युई डेसीमल सिस्टम के आधार पर ही किताबों को रखा जाता था। जब मैंने अपना कैरियर शुरू किया था, तब मैं कॉल नंबर के बारे में ज्यादा नहीं सोचती थी; ये किताबों में पहले से ही छपी हुई आती थीं। मैं अपने नए पेशे के बारे में इतनी नयी बातें सीख रही थी कि मेरा इस चीज़ पर ध्यान ही नहीं गया कि DDS का आधार लिंग-भेदभाव में लिप्त और बेहद यूरोप-केंद्रित है। और, इसके अलावा, DDS किताब को कैटलॉग करने वाले व्यक्ति के निजी पसंदों या विकल्पों पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए, 'भारत की कला' के शीर्षक वाले किताब को 700 (कला और मनोरंजन खंड) नंबर दिया जा सकता हैं, लेकिन जिस किताब का शीर्षक 'भारत: कला और संस्कृति' हो उसको 900 (इतिहास और भूगोल खंड) नंबर दिया जाएगा। यह उदहारण अपने आप में समस्याजनक नहीं है, समस्या तब उठती है जब ऐसे विषयों की किताबें जो पारंपरिक रूप से गोरे-ईसाई पुरुषों के लिए महत्त्व नहीं रखती थीं, उनके DDS नंबर लम्बे होते चले जाते हैं और उन्हें अल्मारी में और भी पीछे धकेल दिया जाता है।
जब एक बार मुझे यह एहसास हो गया कि DDS एक अक्सर-मनमाना एवं निश्चित रूप से पक्षपाती प्रणाली है, मैंने यह तय किया कि कभी-कभी "नियमों" को नज़रअंदाज़ करते हुए, मैं किताबों को अलग तरह से संग्रहित कर सकती हूँ, अगर ऐसा करने से लाइब्रेरी मेंबर्स किताबों तक सरल और स्पष्ट तरीके से पहुँच पाएं। यदि मैं किसी शेल्फ पर ऐसा लेबल नहीं लगा सकती हूँ जिससे लाइब्रेरी मेंबर्स आसानी से जान पाए की उस शेल्फ में कौन सी किताबें हैं, तो उन किताबों को वहाँ से हटाके कहीं और लगाने की ज़रुरत है। यदि कोई छात्र किसी ख़ास प्रकार की किताब की तलाश में मेरे पास आता है और मैं उसे यह नहीं कह सकती, "आपको उस सेक्शन में यह किताब मिलेगी," तो मुझे अपने किताबों के संगठन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। यदि किसी प्रकार के संगठन से मेरे मेंबर्स का लाभ होगा, तो मैं उस संगठन के अनुसार नए कॉल नंबर का अविष्कार भी कर लेती हूँ। पुस्तकालय के कैटलॉग का रूप हमारे मेंबर्स की ज़रूरतों के अनुसार और हमारे पास कैसी किताबें हैं, उसके अनुसार होना चाहिए। कैटेलॉग किन्ही पूर्वनिर्धारित नियमों द्वारा सीमित नहीं होना चाहिए।
ऐसी ही सोच के अनुसार मैंने TCLP को सलाह दी। उपयोगी कैटलॉगिंग के लिए हमें अपने मेंबर्स और उनकी ज़रूरतों को समझना चाहिए। ये ज़रूरी है की हम मेंबर्स के लिए ऐसी कैटलॉगिंग प्रणाली बनाये जिसका वे आसानी से उपयोग कर पाएं। यह भी जरूरी हैं की कैटलॉगिंग सभी के लिए सुलभ और सम्मानजनक हो। अब हम DDS या अन्य विशेषाधिकार-आधारित कैटलॉगिंग प्रणालियों को आँख बंद करके स्वीकार नहीं कर सकते हैं।
यदि हमारे मेंबर्स सुपरहीरो पुस्तकों को पसंद करते हैं और उन सभी पुस्तकों को एक जगह देखना चाहते हैं, तो हम एक सुपरहीरो सेक्शन बना सकते हैं। यदि हमारे मेंबर्स पढ़ना सीख रहे हैं और किताबों के कवर पर छपी हुई संख्या के आधार पर शुरुआती किताबें लेना चाहते हैं, तो हम उसी आधार पर पुस्तकों को संगठित करेंगे। यदि हमारे पाठक शार्क मछली के बारे में सब कुछ पढ़ना चाहते हैं, चाहे वो फिक्शन हो या नॉन-फिक्शन, तो हम सारे शार्क वाले किताबों को एक साथ रखेंगे। और, अगर हम किताबों का एक संग्रह या समूह बनाते हैं और देखते हैं कि ये हमारे मन के अनुसार काम नहीं कर रहा है, तो हम इसे बदल देते हैं।
ये देखा गया है कि जो बच्चे ग़रीबी में रहते हैं, जिनके पास घर में किताबें नहीं होती हैं, या जिनके माता-पिता उन्हें किताब पढ़कर नहीं सुनाते हैं, वे ज़्यादा संपन्न घर के बच्चों की तुलना में स्कूल में कम हासिल कर पाते हैं। *क्रेशन, ली, व मक क़ुइलन नामक तीन शोधकर्ताओं ने अपने २०१२ के शोध में चालिस अलग-अलग देशों के छात्रों को शामिल किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि गरीब बच्चों को अगर एक अच्छी लाइब्रेरी मिले तो उससे उनकी पढ़ने की क्षमता को बहुत बढ़ावा मिलता है।
मैं मानती थी कि सभी किताबें अच्छी होती हैं। मेरा मानना था कि अगर मैं जरूरतमंद लोगों को अपनी पुरानी किताबें दान कर दूँ, तो वे किताबें अपने आप में ही एक लाइब्रेरी बन जाएंगी, और बच्चे अपने आप से पाठक बन जाएंगे। ऐसा सोचना की मेरी अपनी लाइब्रेरी में जो किताबें अब काम की नहीं थीं वही किताबें कम-विशेषाधिकार वाले लोगों के लिए पर्याप्त और उचित होंगी, मेरी अनुभवहीनता और विशेषाधिकार से लिप्त दृष्टिकोण का नतीजा था। यहां तक कि, दान की हुई किताबें अच्छी ही क्यों न हों, उन किताबों का किसी को कोई विशेष लाभ नहीं होगा जब तक एक जानकार लाइब्रेरियन उन किताबों को एक अच्छे संग्रह में न बनाये। कोई भी लाइब्रेरी हर दान की गयी पुस्तक को लेने के लिए बाध्य नहीं है। लाइब्रेरियन ही ये जानते हैं कि उनके लाइब्रेरी और मेंबर्स को क्या चाहिए, और उन्हें केवल उन पुस्तकों को लेना चाहिए जो इस लक्ष्य को आगे बढ़ाएंगे।
TCLP के लाइब्रेरियन ये अच्छी तरह से समझते हैं कि बिना फ़ीस वाली लाइब्रेरी हर एक बच्चे का हक़ है। वे जानते हैं कि लाइब्रेरी का उपयोग एक अधिकार है, कोई विशेषाधिकार नहीं। वे यह भी जानते हैं कि लाइब्रेरियों को सोच-विचार कर के पुस्तकों का एक ऐसा संग्रह बनाना चाहिए जो उनके मेंबर्स पढ़ना चाहेंगे, और ये किताबें उन विषयों पर हों जो मेंबर्स के लिए महत्वपूर्ण होगा, और उन फॉर्मेट में हों जो वे पसंद करेंगे। TCLP का स्टाफ, उसकी किताबों का संग्रह, और उसके विभिन्न प्रोग्राम, ये सब इस संस्थान के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित हैं — 'पढ़ना सोचना है’।
समाज में विशेषाधिकार की दीवारों को गिराने के लिए हमें पाठक और विचारक चाहिए। एक अच्छी लाइब्रेरी हर किसी का अधिकार है, न कि कुछ ख़ास लोगों का विशेषाधिकार।
*क्रशेन, एस., ली, एस.वाई., और मक क़ुइलन , जे., 2012. "क्या पुस्तकालय महत्वपूर्ण है? राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुभिन्नरूपी अध्ययन।”, जर्नल ऑफ़ लैंग्वेज एंड लिट्रेसी एजुकेशन, 8 (1): 26-36.
लिंडा होयसेट के इस लेख का अनुवाद किया है रंजना दवे ने और हिमांशु भगत ने इसका संपादन किया है।
In the series of conversations with Linda Hoiseth:
Privilege and Libraries
Q& A with Linda Hoiseth (Part 1)
Q & A with Linda Hoiseth (Part 2)
लिंडा होइसेट के साथ सवाल-जवाब (भाग १)
लिंडा होइसेट के साथ सवाल जवाब (भाग २)
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