मृदुला कोशी के इस इंटरव्यू में वह एक बात कह गयी जो मेरे ज़हन में बैठ गयी (8.20 मिन) : "हमारा देश इतना विशाल है, लेकिन अभी भी इसमे सैंकड़ो लोग हैं जो अपनी किताब, अपनी कहानी नहीं लिख रहे हैं."
अगर हम पूछे कि वो सैंकड़ों किताबें कहाँ हैं और वह ताक़ सूनी क्यों पड़ीं है, तो इसका जवाब सरल भी है और पेचीदा भी. 'दी कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट' में हम न सिर्फ उन किताबों को खोजने की कोशिश करते हैं बल्कि उन लेखकों को भी, जो एक दिन अपनी भाषा में अपनी कहानी खुद अपने हाथों से लिखेंगे।
तो यह किताबें हैं कहाँ? क्या सिर्फ अंग्रेजी या किसी एक वर्ग के लेखक ही भारतीय साहित्य के पहरेदार हैं? पढ़ने, सोचने, कल्पना करने और किताबें लिखने का हक़ क्या सिर्फ इस छोटे-से गुठ को ही है? प्रादेशिक लेखकों की कमी नहीं है (शायद बच्चों की किताबों में हैं) लेकिन हम यह किताबें सब शेल्फों पर क्यों नहीं देख रहे हैं? हमारी लाइब्रेरी की शेल्फों को अलग-अलग भाषाओं और विषयों में बाटा गया है. हिंदी/अंग्रेजी कथा, सहज कथा, हिंदी/ 'पिक्चर बुक', कविता, उर्दू, बंगाली इत्यादि। इनमे से वह कहानियां सबसे पहले बच्चों के हाथों तक पहुँचती हैं, जो उनकी निजी ज़िदगी के करीब हो. ऐसी किताबें बहुमूल्य हैं, क्यूंकि वह इतनी कम तादाद में मिलतीं हैं. इन किताबों के पात्र गांव में भी और शहर में भी रहतें हैं. कभी-कभी उनके पापा-मम्मी मैकेनिक या 'डोमेस्टिक वरकर' का काम करते हैं, तो कभी वो राजा और ज़मींदार होते हैं. कभी-कभी उन्हे स्कूल की टीचर खूब डांटती है और कभी कभी टीचर ही उन्हे एक नई दिशा और दुनिया दिखलाती है. कुछ पात्र जंगल में गुम हो जातें हैं और उन्हे वापस घर एक चिड़िया या जानवर पहुंचता है. आखिर किताबों की दुनिया में कुछ भी हो सकता है. किताबों की दुनिया में सबकी कहानी सुनने और पढ़ने लायक है.
अब तक आप समझ गए होंगे की हिंदी मेरी 'फर्स्ट लैंग्वेज' नहीं है और मैं ज़्यादातर अंग्रेजी में सोचती हूँ (यह मेरे लिए दुःख की बात है, क्यूंकि मैंने हिंदी साहित्य के हज़ारों अमूल्य गहनों को आज तक नहीं पहचाना). लेकिन पुस्तकालय में २ साल बिताने के बाद मैं समझ गयी हूँ कि एक सदस्य की भाषा में बात करना व सुनना, किताबें पढ़ना व पढ़ाना कितना ज़रूरी है. इन दो सालों में मैंने जाना की हर एक सदस्य के अंदर एक अनोखी कहानी छुपी हैं, चाहे वो उसे बताना चाहें या नहीं. हर पाठक के अंदर एक अनोखी दुनिया है, जिसे सिर्फ वह और उनकी किताबे जानती हैं. हर बच्चे में लेखक बनने की क्षमता है, अगर हम उसकी काल्पनिक दुनिया को बढ़ावा दें, उसको यह संदेश बार-बार दें की उसकी कहानी और उसकी दुनिया ज़रूरी हैं, रोमांचक हैं और जानने लायक है.
गलत न समझें! यह 'समाज सेवा' बिलकुल नहीं है (सच कहू तो इस धारणा से मुझे घिन्न है). समाजिक और 'फ्री' लाइब्रेरी चलाने में आप जैसे पाठकों का फायदा ही फायदा है. कैसे? कल्पना कीजिए: हर 'फ्री' पुस्तकालय में सैंकड़ों बच्चें पाठक बनेंगे . इनमे से कुछ पाठकों को साहित्य से इतना प्यार हो जायेगा की वह अपनी कहानी खुद लिखना चाहेंगे. जितने नए लेखक हमारे समाज में आएंगे, उतनी नई आवाज़ें. जितनी नयी आवाज़, उतने नए लेख और किताबें। जितनी नयी किताबें और कहानियाँ, उतनी भरेंगी हमारे लाइब्रेरी की शेलफें. जितनी भरेंगी शेलफें, उतने नए पाठक पैदा होंगे और यह सिलसिला आगे बढ़ता रहेगा.
इस देश के प्रति 'फ्री' व समाजिक पुस्तकालय का कर्त्तव्य है कि हर देशवासी को न सिर्फ किताबें हासिल हों, बल्कि पढ़ने और सोचने के बीच की दूरी को पूरा करने के साधन भी दिये जाये। अगर यह तीन चीज़ें - किताब, पढ़ने का माध्यम और सोचने का साधन - दिए जाए तो मेरा यक़ीन है कि हिंदुस्तान कि कोई भी ताक़ सूनी नहीं रहेगी.
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