कुछ समय पहले मैंने बाल साहित्य पर आयोजित एक समारोह में भाग लिया था। इस समारोह का आयोजन रवींद्र भवन गोवा, जो कि एक सरकारी संस्था है, और कोंकणी भाषा के उन्नति के लिए काम करने वाली एक एन. जी. ओ., कोंकणी भाषा मंडल ने मिलकर, गोवा के मड़गांव में किया था। आमतौर पर मुझे इस प्रकार के अकादमिक समारोह से थोड़ी आशंका रहती है। आशंका का कारण इन समारोह के उद्देश्य एवं इनकी पहुँच को लेकर होती है। इन समारोह में बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कहीं जाती हैं, इस में कोई शक नहीं। तो आशंका का स्रोत यह रहता है कि इन शिक्षा और बच्चों पर निर्धारित समारोह में यह सब महत्त्वपूर्ण बातें कहने और सुनने वाले लोग ज़्यादातर अकादमिक जगत के विद्वान होते हैं या फिर इस क्षेत्र में काम करने वाले कुछ अन्य विशेषज्ञ। लेकिन जो रोज़ाना इन बच्चों के साथ स्कूलों में और स्कूलों के बाहर काम करते हैं, वे अक्सर इन समारोह से बाहर छूट जाते हैं। इस कारण यह सब महत्त्वपूर्ण बातें मुट्ठी भर लोगों के बीच में घूमती रह जाती हैं और मन में यह सवाल उठ जाता है कि क्या कभी यह सब ज्ञान की बातें स्कूलों में काम कर रहे शिक्षकों तक पहुँच भी पाती है या नहीं? और क्या उन शिक्षकों की बातें और ज्ञान, और इतने सालों का अनुभव, कभी बाकी सब तक पहुँच पाता है? एक सवाल यह भी उठता है कि इन सम्मेलनों का मकसद अगर शिक्षा में सुधार लाना है तो शिक्षक ही इनमें भाग क्यों नहीं लेते? या इनका मुख्य उद्देश्य केवल आपसी ज्ञान को बाँटना और बढ़ाना ही है? इसलिए यह कुछ सवाल मन में लिए जब मैं इस समारोह में पहुँची तो यह देखकर बेहद खुशी हुई कि दर्शकों में बैठे अधिकतर लोग स्कूली शिक्षक थे। और भी अच्छा होगा अगर आगे चल कर इस तरह के समारोह में स्कूली शिक्षक भी अपने काम और ज्ञान का प्रदर्शन कर सकें। तभी शायद सही मायने में इन समारोह का वैसा प्रभाव पड़ेगा जिसकी हम आशा करते हैं।
अब बाल साहित्य और पुस्तकालयों पर चर्चा केवल निजी तौर पर ही नहीं हो रही हैं, सरकारी स्तर पर भी इस पर बातचीत हो रही है। बाल साहित्य और पुस्तकालयों के महत्व को पहचाना जा रहा है और स्कूलों तक पहुँचाने का प्रयत्न भी किया जा रहा है। अलग-अलग स्तरों पर इस तरह से हलचल होना बाल साहित्य और पुस्तकालयों के भविष्य के लिए एक सकारात्मक संकेत है। पर केवल इतना ही तो काफी नहीं है। हमारा यह मान लेना कि एक चार दीवारों का कमरा, जिसमें किताबें रख दी जाएँ, वह अपने आप लाईब्रेरी का रूप ले लेता है, ग़लतफ़हमी है। बच्चे किताबें पढ़ने में रुचि लें, इसके लिए लाईब्रेरी का माहौल बनाना पड़ेगा। मुझे याद है कि मेरे स्कूली दिनों में किताबें पढ़ने और नए नए साहित्यों को अनुभव करने के उत्साह में एक बड़ा योगदान रहा मेरी स्कूल प्रिंसिपल का। बच्चों से मिलने पर वे हमेशा कुछ अपनी मनपसंद किताबों के बारे में बताती थीं, कुछ नई किताबों का सुझाव देती थीं, और हमने जो किताबें पढ़ी हो उन पर हमारे विचार जानती थीं। इससे कुछ महत्त्वपूर्ण चीजें हुईं – पहला, मैंने जाना कि अगर प्रिंसिपल इसके बारे में बातचीत कर रही हैं तो यह उतना ही ज़रूरी है जितना कि बाकी की पढ़ाई। मैंने यह भी जाना कि अध्यापक भी किताबें पढ़ने में रुचि रखते हैं जिससे मेरा किताबें पढ़ने के लिए उत्साह और भी बढ़ गया। मैंने जाना कि जितना मज़ेदार किताबें पढ़ना है उतना ही मज़ेदार उनके बारे में सोचना और बातें करना भी है। और मैंने जाना कि नया साहित्य खोजना और उसे अनुभव करना बहुत रोमांचक है। तो इस बात का तर्क यही है कि किताबों का मौजूद होना इस बात का आश्वासन नहीं देता कि बच्चे किताबें पढ़ने लगेंगे; उसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें रोज़ किताबें पढ़ने का मौका दिया जाएँ, अध्यापक और अन्य बड़े लोग भी उनके साथ किताबें पढ़ने में जुड़ें, और उनके सामने दर्शाया जाएँ कि किताबें पढ़ना हमारी सोचने की क्षमता को बढ़ावा देने के लिए जितना ज़रूरी है उतना ही मज़ेदार भी है। तभी सही मायने में वह चार दीवारों का कमरा लईब्रेरी कहलाएगा और बच्चों के लिए किताबें पढ़ने के लिए माहौल बनेगा।
इन सब मुद्दों पर बातचीत के दौरान मेरे एक सहकर्मी ने एक उचित बात सामने रखी – स्कूलों में लाईब्रेरी बनाना तो बहुत अच्छा है लेकिन सामुदायिक पुस्तकालयों के बिना स्कूल के बाहर और स्कूली शिक्षा खत्म होने के बाद इन पाठकों का क्या होगा? तब वे किताबें कहां पढ़ेंगे? यह सवाल काफी लाज़िमी है। किताबें पढ़ना अगर इतना महत्त्वपूर्ण है तो किताब पढ़ने के अवसर तो सभी को निरंतर और ज़िंदगी भर के लिए मिलने चाहिए! इसलिए स्कूल से शुरुआत करना शायद पहले कदम के तौर पर अनिवार्य है, लेकिन अपने आप में पर्याप्त नहीं है। तो पुस्तकालयों और बाल साहित्य पर बढ़ती हुई इस चर्चा में एक पहलू सामुदायिक पुस्तकालयों के विषय पर जोड़ना अनिवार्य है। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हम पुस्तकालय की धारणा को केवल स्कूली शिक्षा तक सीमित नहीं रख सकते; पुस्तकालय का मकसद केवल शिक्षा में बेहतर प्रदर्शन करना ही तो नहीं है। यह पुस्तकालयों की परिभाषा को ही सीमित कर देता है। साथ ही यह पुस्तकालयों से जुड़ी, और उसमें पैदा होने वाली कल्पनाओं और विचारों पर भी प्रतिबंध लगा देता है। सोचिए अगर लाईब्रेरी में केवल किताबें बदली जाती हो, ना बातचीत हो, ना विचारधारा आगे बढ़े, और न ही समझ को बढ़ावा मिले – यह कल्पना करना ज़्यादा कठिन नहीं होगा। लेकिन ऐसी लाईब्रेरी जानकारी पाने के लिए तो सही है, पर यहाँ सोचने के लिए ज़्यादा मौक़ा नहीं मिल पाता।
क्योंकि बात बाल साहित्य और सोच की हो रही है, तो यह चर्चा बाकी कलाओं के जिक्र के बिना अधूरी है। जैसे की सम्मेलन में मौजूद एक वक्ता ने बहुत खूबसूरती से पेश किया – “भाषा तो आखिरी कला है। बाकी कलाओं के बिना भाषा अधूरी है।” शायद इसी सोच से समारोह में बाल साहित्य के विषय पर बात करने के लिए बच्चों के साथ काम करने वाले अन्य कलाकार, जैसे की संगीतकार और थिएटर कलाकार को भी आमंत्रित किया गया था। समारोह में चर्चा का एक विषय यह भी रहा कि साहित्य पाठक की मातृ भाषा में जितनी भावनाओं और रुचि के साथ पढ़ा जा सकता है, उतना किसी दूसरी भाषा में नहीं हो सकता। तो ज़रूरी है कि बाल साहित्य बच्चों की मातृ भाषा में भी उपलब्ध हों। ऐसी ही कुछ समस्या से हम अपने पुस्तकालय में भी जूझ रहे हैं। हालाँकि पिछले एक दशक में भारत में बाल साहित्य के क्षेत्र में अत्यंत विकास देखा गया है, कई बड़े प्रकाशक इस क्षेत्र में किताबें, खास तौर पर चित्र कथा, छापते हैं। किंतु किशोरों के लिए उचित किताबें भारतीय भाषाओं में आज भी केवल गिनी-चुनी ही हैं। यह भी एक कारण है कि जहाँ हम एक तरफ़ देखते हैं कि बच्चे बड़ी संख्या में किताबें बदलवाने और कहानियाँ सुनने लाईब्रेरी आते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ लाईब्रेरी में आने वाले और किताबें बदलवाने वाले किशोरों की संख्या बाकी बच्चों की तुलना में अब भी कम है। और जो किशोर सदस्य आते भी हैं, ज्यादातर थोड़ी कठिन चित्र कथा पढ़ना पसंद करते हैं बजाय उपन्यास के। यह एक ऐसा विषय है जिसपर दो बातें लिख देना काफी नहीं होगा। इस पर विस्तार में छानबीन एवं चर्चा करना आवश्यक है। पर एक बात जो साफ़ तौर पर समझ आती है वह यह है कि किशोरों के लिए भारतीय साहित्य और भाषाओं में आज भी पर्याप्त विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। और हालाँकि बाल साहित्य पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अब चर्चा है, लेकिन उस चर्चा में ज्यादातर किशोरों पर विचारधारा का लुप्त होना दर्शाता है कि इस वर्ग के छात्र इस मुद्दे से अक्सर नज़रअंदाज़ हो जाते हैं।
खैर बातें अनेक हैं और सवाल उनसे भी ज़्यादा। इस लेख का उद्देश्य था इस समारोह में भाग लेने के बाद मन में आएँ कुछ खयालों को सभी के साथ बाँटना; बातें कुछ साधारण सी ही थी, पर मेरी मान्यता में ज़रूरी थी। क्योंकि बाल साहित्य एक ऐसा विषय है जिसे अक्सर हम ‘एक्स्ट्रा-करिकुलर’, यानी सह-पाठ्यक्रम-क्रिया का दर्जा दे देते हैं, तो इसे न स्कूल में और न ही स्कूल के बाहर उचित समय दिया जाता है। अगर एक्स्ट्रा-करिकुलर से निकल कर इसे स्थान मिले भी, तो भी इसे भाषा सीखने के लिए, किसी जानकारी के लिए, या अन्य किसी लाभ के लिए पढ़ा जाता है। इसका नतीजा यह रहता है कि साहित्य को अपने आप में जरूरी नहीं माना जाता, और जाहिर है ऐसे में लाईब्रेरी, खास तौर पर शैक्षिक संस्थाओं से बाहर किसी समुदाय में लोगों की पहुँच में स्थित लाईब्रेरी को एक महत्त्वपूर्ण संस्थान की तरह नहीं देखा जाता। इस तरह के समारोह, और इनमें होने वाली चर्चा में अलग-अलग क्षेत्रों से लोगों का जुड़ना एक विकल्प है जिसके जरिए बाल साहित्य को बढ़ावा दिया जा सकता है। पर यह केवल एक शुरुआती कदम है – इसके बाद बाल साहित्य और पुस्तकालयों को हम किस तरह से समझते और देखते हैं, यह तो हम सभी पर निर्भर करता है।
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