किसी भी लाइब्रेरी में पुस्तकों को कैटलॉग करने का काम बहुस्तरीय होता हैऔर उन परतों, यानि अलग-अलग स्तरों, के भीतर छिपी विशेषाधिकार और पूर्वधारणा, शुरुआत में अक्सर नज़र नहीं आते हैं। थोड़ी गहराई से देखें, तो फिर एक लाइब्रेरियन के हैसियत से आपको ऐसे सवालों का सामना करना पड़ता है जो सामान्य कैटलॉगिंग की तुलना में जटिल होते हैं। जैसे कि, क्या धार्मिक ग्रंथों को गैर-कथा, यानि नॉन-फिक्शन, के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए, जैसे उन्हें ज्यादातर कैटेलॉग किया जाता है? क्या लाइब्रेरियन ग्रंथों के वैधता की आलोचना कर सकते हैं, या उन्हें सिर्फ अन्य लाइब्रेरीयों के पहले से चले आ रहे नियमों से तालमेल रखने की कोशिश करनी चाहिए? आखिर ग्रंथों में अक्सर ऐसे विचार पाए जाते हैं जिनका समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। द अमेरिकन एम्बेसी स्कूल, नई दिल्ली, में शिक्षक-पुस्तकालयाध्यक्ष लिंडा होइसेट ने कुछ ऐसे ही दुविधाओं पर अपने विचार व्यक्त किए।
Q. प्रायः प्रमुख धार्मिक ग्रंथ, जैसे बाइबल, तोराह, व कुरान को गैर-कल्पना यानि नॉन-फिक्शन के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। हिन्दुओं और सिखों के किन धार्मिक ग्रंथोंको इसी तरह गैर-कल्पनिक माना जा सकता है? वेद, महाभारत और रामायण? या, भगवदगीता? या मनुस्मृति – येसवाल हमारे लाइब्रेरी के लिए महत्वपूर्ण है? किन धार्मिक पुस्तकों को कथा यानि फिक्शन के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है? ओशो की किताबें फिक्शन या नॉन-फिक्शन होंगी? अगर बाइबल की कोई कहानी को कॉमिक बुक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो क्या वह काल्पनिक, यानि फिक्शन, बन जाती है?
कोई भी धार्मिक ग्रंथ – जिसमें हिंदू और सिख ग्रन्थ भी शामिल हैं – आम तौर पर गैर-कथा अनुभाग में दिखाई देते हैं। लेकिन पुराणकथा और साहित्य में भी धार्मिक सन्देश होते हैं, और उन्हें शायद अलग खंड में रखा जाता हैं। हम कैसे तय करें कि कौन सी किताब 'सच' है और कौन सी 'सच' नहीं है? मैं ऐसी सभी किताबों को 'धर्म' या 'मान्यता' नामक एक खंड में रखती हूँ। (अगर आप चाहें, तो 'हिन्दू धर्म' या 'ईसाई धर्म' नामक अलग-अलग विभागों में भी रख सकते हैं।) "सत्य" क्या है, यह आपके मेंबर्स अपने हिसाब से सोच सकते हैं।
हमारी लाइब्रेरी में हमने मिथक, पुराणकथा, परीकथा आदि को गैर-कल्पना / नॉन-फिक्शन से हटा दिया और एक खंड बनाया जिसको हम 'पारंपरिक दास्तां' कहते हैं – आप यह भी कर सकते हैं। यदि कैटलॉगिंग में हमारा पहला सिद्धांत यह है कि मेंबर्स को आसानी से उनकी पसंदीदा किताबें मिल जाए, तो दूसरा सिद्धांत यह हो सकता है कि ड्युई और अन्य कैटलॉगिंग सिस्टम नस्लवादी, सेक्सिस्ट, और पश्चिमी-झुकाव वाले विचारों पर आधारित हैं। और, यह बात हमें पहले सिद्धांत पर वापस लाती है – किताबों को वहीं रखो जहाँ वो लाइब्रेरी मेंबर्स को उनकी अपनी समझ से, आराम से मिल सके।
Q. फिक्शन शब्द का अर्थ है कि यह एक मन की गढ़ी हुई कहानी है। और, जो फिक्शन नहीं है, उसे नॉन-फिक्शन माना जाता है। मगर यह जरूरी नहीं है की नॉन-फिक्शन या गैर-कल्पना "सच" या "वास्तविक" या "हक़ीक़त" हो। दलाई लामा द्वारा विश्व-शांति के प्रचार के लिए लिखी गयी किताब भी नॉन-फिक्शन ही मानी जाएगी। लेकिन हमारी लाइब्रेरी में कई सदस्य हर नॉन-फिक्शन / गैर-काल्पनिक किताब को "सत्य" मानते हैं। यदि कोई धार्मिक किताब जातिभेद को बढ़ावा देती हैं और हम इसे गैर-कल्पना के रूप में वर्गीकृत करते हैं, तो क्या यह हमारे सदस्यों के हित में होगा? और, यदि हम इस पुस्तक को कल्पना या फिक्शन के रूप में वर्गीकृत करते हैं, तो क्या हम अन्य सामान्य लाइब्रेरीयों के नियमों से अलग हो जाते हैं?
गैर-कल्पना को अंधा-धून "सत्य" मानना (बजाय उसे "नहीं-काल्पनिक" मानना) – यह कई बार दुनिया भर के छात्रों को उलझन में डाल देता है। लेकिन हम सभी ऐसी सोच के चपेट में आ सकते हैं क्योंकि "सत्य," "गैर-कल्पना / नॉन फिक्शन" की एक सरल व्याख्या है। यदि आपके पास ऐसे ग्रंथ या किताबें हैं जो विवादास्पद या तर्कपूर्ण राय व्यक्त कर रहे हों, तो आप उनके लिए एक अलग विभाग बना सकते हैं। उस विभाग को आप "राय" या "राजनीतिक विचार" या "संपादकीय" या "निबंध", या कुछ इसी तरह का नाम दे कर अपने मेंबर्स को संकेत दे सकते हैं कि ये ज़रूरी नहीं है कि इन किताबों में लिखी हुई बातें हमेशा तथ्य या वास्तविक ही हों, भले ही उन्हें “गैर-कल्पना / नॉन फिक्शन” के रूप में वर्गीकृत किया गया हो।
Q. एक लाइब्रेरियन को कॉपीराइट के मुद्दे या सवाल को कानूनी, पेशेवर, और नैतिक रूप से कैसे देखना चाहिए? क्या इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर नहीं है कि पाठकों को किताबें या अन्य पाठन सामग्री उपलब्ध हैं की नहीं, और अगर हैं तो कितनी आसानी से उपलब्ध हैं? हमारी लाइब्रेरी में हम ओपन-सोर्स, कॉपीराइट-मुक्त किताबों के साथ 'रीड-अलाउड' करते हैं – एकलव्य, प्रथम, और एकतारा जैसे प्रकाशनों द्वारा छपी हुई किताबों के साथ। लेकिन ऐसी ओपन-सोर्स, कॉपीराइट-मुक्त किताबें तो बहुत ही कम होती हैं। सामान्य रूप से, पुस्तकें हमारे मेंबर्स की पहुँच से बाहर होती हैं। महामारी के इस समय में हमारे सदस्य पुस्तकालय आ नहीं सकते हैं और इसलिए हम उनके लिए एक मुफ्त ऑनलाइन लाइब्रेरी तैयार कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में हम उनके लिए कितनी ही अच्छी और विख्यात किताबों से रीड-अलाउड नहीं कर पा रहें हैं क्योंकि वे सभी किताबें कॉपीराइट-सुरक्षित हैं। हम अपने-आप को असहाय और मजबूर पा रहें हैं। कॉपीराइट कानून की सख्ती पर नज़र रखते हुए हम किताबों को बच्चों तक पहुँचाने की अपनी ज़िम्मेदारी को कैसे निभाएँ?
मुझे पहले ये बता देनी चाहिए कि कॉपीराइट का मेरा ज्ञान अमेरिका की नीतियों पर आधारित है क्योंकि वे हमारे स्कूल की लाइब्रेरी पर लागू होते हैं। उचित-उपयोग सिद्धांत हमको चार चीज़ों पर विचार करने के लिए कहता है – किताब इस्तेमाल करने का उद्देश्य, कॉपीराइट किताब किस प्रकार की है, उपयोग किया गया अंश कितना बड़ा है, और उस अंश के उपयोग से किताब के बाजारी मूल्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ये सवाल ऐसे हैं जिनका कोई एक सही जवाब नहीं है। कुछ लाइब्रेरियन तो कॉपीराइट कानून की विशुद्ध और सख्त व्याख्या का पालन करते हैं। दूसरी ओर, 'स्कूल लाइब्रेरी जर्नल' ने हाल में ही, अपने एक शोध-विचार के अनुसार, डिजिटल रीड-अलाउड को सहराया है। निजी रूप से, मुझे उनके तर्क पर भरोसा है, और मेरा ये विश्वास है कि अधिकांश पुस्तकालयों को अपने संग्रह में मौजूद पुस्तकों के डिजिटल रीड-अलाउड करने का हक़ है।
कृपया ध्यान रखें कि भारत के कॉपीराइट कानून के बारे में मेरी समझ बहुत ही सीमित है, इसलिए मुझे नहीं पता कि भारतीय कानून मेरी इस सोच का समर्थन करता है या नहीं।*
Q. "निष्पक्षता एक अवास्तविक आदर्श है जो काल्पनिक राय-मुक्त लाइब्रेरियन द्वारा काल्पनिक पूर्वाग्रह-से-मुक्त सामग्री के चयन पर निर्भर हैं।"
(अल्फिनो और पियर्स, 2001; बुद्ध; 2006; बर्टन, 2009; समक; 2001; विएगंड, 2011)
इस कथन को ध्यान में रखते हुए, क्या एक लाइब्रेरियन को किसी मेंबर को किसी पुस्तक का मुआयना करने में मदद करनी चाहिए – कीवो किताब अच्छी है, पढ़ने लायक है, या नहीं? क्या लाइब्रेरियन को अराजनैतिक होना चाहिए? उदाहरण के तौर पे, 'मैन कॉम्प्फ' (Mein Kampf) भारत में एक लोकप्रिय पुस्तक है और कभी-कभी हमारी एक लाइब्रेरी में इशू भी किया जाता है। इसे पुस्तकालय में कैसे रखना चाहिए? क्या यह आधा छिपा हुआ होना चाहिए? अगर कोई मेंबर पुस्तकालय में इस पुस्तक को खोजता है तो लाइब्रेरियन को क्या कहना चाहिए?
यह एक ऐसा सवाल है जिस से सभी लाइब्रेरियन संघर्ष करते हैं।
जब मैं अपने पुस्तकालय में किसी किताब को शामिल करने या न करने के बारे में सोच रही होती हूँ, तो मैं 'अमेरिकन लाइब्रेरी एसोसिएशन' के चयन-मानदंड की मदद लेती हूँ। इस प्रश्न के लिए, मेरे लिए निम्नलिखित मानदंड अहम हैं —
• पुस्तकालय के मेंबर्स का जो समुदाय है, उसके लिए किताब की अहमियत – वर्तमान में और आगे चल के भी
• पाठकों के लिए किताब के विषय और शैली की उपयुक्तता
• क्या ये किताब आज के समय के हालात व हक़ीक़त को किसी प्रकार से दर्शाती है
• पुस्तकालय में किताबों के मौजूदा संग्रह और इसी विषय पर अन्य किताबों व सामग्रियों से किताब का संबंध
• क्या ये किताब किसी विषय पर विविध दृष्टिकोण दर्शाने का प्रयास करती है
• क्या ये किताब साहित्य या ज्ञान की महत्वपूर्ण शैलियों व धाराओं को दर्शाती है
इन ही मानदंडों के आधार पर मैंने लाइब्रेरी में हाई-स्कूल में इतिहास पढ़ने वाले छात्रों के लिए Mein Kampf की एक कॉपी रखी है। हाँ, लेकिन लाइब्रेरी में ऐसी भी बहुत जानकारी उपलब्ध है जो Mein Kampf में मौजूद विचारों के खतरे के बारे में बताती है। कुछ किताबों को – ख़ास कर ऐसी किताबें जो नफरत या भेदभाव को बढ़ावा देती हैं – सिर्फ 'निरपेक्ष' और खामोश नज़रिये से नहीं देखा जा सकता है। इस रवैय्ये से किताब के खतरनाक विचारों को बढ़ावा मिलता है। इसलिए जब मेंबर्स ऐसी कोई किताब इशू करते हैं, तो मैं उनके साथ किताब के बारे में बातचीत भी करती हूँ। एक लाइब्रेरियन को निश्चित रूप से मेंबर्स की किताबों को आंकने व परखने में उनकी मदद करनी चाहिए।
Q. जैसे-जैसे भारत में लाइब्रेरियन की अहम् भूमिका पर गौर किया जा रहा है, वैसे-वैसे असमानता का एक प्रश्न उठ खड़ा होता है। जो पढ़े-लिखे लोग लाइब्रेरियन बनने योग्य होते हैं, और वे लोग जिन्हें पढ़ना सीखने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता होती है – उनके बीच की असमानता। अमेरिका में 'पीपल ऑफ़ कलर' (गोरे जाती के लोगों से अतिरिक्त अलग-अलग नस्ल के लोग) ने ये तर्क दिया है कि लाइब्रेरी एक पदानुक्रमिक जगह बन जाती है, यानी एक ऐसी जगह जहां लोगों में ऊँच-नीच का भाव आ जाता है। लाइब्रेरियन एक बाहरी व्यक्ति होता है। वह मेंबर्स के समुदाय से अपने श्रेणी, जाती, या नस्ल के कारण फर्क होता हैं। क्या आप इस राय से सहमत हैं? इस तरह के ऊँच-नीच को मिटाने के लिए एक सुझाव ये भी है कि लाइब्रेरियन की नौकरी के लिए ऊँची डिग्री और शिक्षा को अनिवार्य न रखा जाए। क्योंकि ये सभी के लिए समान रूप से सुलभ नहीं है। क्या आपको लगता है कि कोई व्यक्ति उच्च डिग्री और शिक्षा के बिना लाइब्रेरियन बन सकता है? एक लाइब्रेरियन को कितना पढ़ा-लिखा होना चाहिए? एक लाइब्रेरियन की सबसे महत्वपूर्ण योग्यता क्या होनी चाहिए?
मैं मानती हूँ कि लाइब्रेरी संरचनाओं में नस्ल और श्रेणी का विशेषाधिकार निश्चित ही कहीं-कहीं एक समस्या है। एक अच्छा लाइब्रेरियन होने के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल प्राप्त करने के कई तरीके हैं। एक तरीका है पारंपरिक विश्वविद्यालय डिग्री हासिल करना। दूसरा है, इंटर्नशिप / अपरेंटिसशिप (शागिर्दी / गुरु-चेला मॉडल)। तीसरा तरीका है, नौकरी में प्रशिक्षण के जरिये से। बिना उच्च डिग्री के भी कोई अच्छा लाइब्रेरियन हो सकता है।
एक लाइब्रेरियन को, अपने मेंबर्स की जरूरतों को समझते हुए, किताबों का संग्रह बनाना चाहिए और उस संग्रह को मेंबर्स के लिए उपलब्ध कराना चाहिए। 'बहुत पढ़ा-लिखा' – इसका हर समुदाय में अलग मतलब हो सकता है।
एक ऐसे समुदाय की लाइब्रेरी को जहां उभरते पाठकों को पढ़ने के लिए आमंत्रित व प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, एक ऐसे लाइब्रेरियन की शायद जरूरत नहीं होगी जिसके पास कई डिग्री हों और जो सिर्फ 'उच्च' साहित्य की जानकारी रखता हो। शायद ऐसे लाइब्रेरी में उसी समुदाय का कोई व्यक्ति, जो कभी स्वयं एक उभरता पाठक था, एक बेहतरीन लाइब्रेरियन का काम कर पाएगा।
*भारतीय कानून में कॉपीराइट अधिनियम १९५७ की धारा ५२ के अनुसार शैक्षिक या नॉन-प्रॉफिट परिस्थितियों में कॉपीराइट-सुरक्षित साहित्यिक सामग्री को दोहराना या सुनाना 'फेयर यूज़' अधिकार के भीतर पड़ता है।
लिंडा होयसेट के इंटरव्यूका अनुवाद किया है रंजना दवे ने और हिमांशु भगत ने इसका संपादन किया है।
In the series of conversations with Linda Hoiseth:
Privilege and Libraries
विशेषाधिकार और लाइब्रेरी
Q& A with Linda Hoiseth (Part 1)
Q & A with Linda Hoiseth (Part 2)
लिंडा होइसेट के साथ सवाल-जवाब (भाग १)
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