पढ़ना सोचना है...! आप पूंछेंगे कैसे? तो ज़रा सोचिये कि जब हम किसी चीज़ के बारे में लिखा देखते हैं, या पढ़ते हैं तो उससे संबंधित चित्र, विचार, कल्पनाएं तरह-तरह की बातें मन में उमड़ने लगती है। बिना किसी कि परवाह किये हम उस बात के प्रति अपना ही दृष्टिकोण या नज़रिया रखने लगते हैं। मगर ऐसा क्यों होता है, कभी सोचा है आपने! शायद इसलिए क्योँकि हम समाज से, अपने आसपास के माहौल से सब कुछ सीख़ चुके होते हैं। मगर क्या इतना काफी हैं या कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो हमारे अंदर उमड़ते इन विचारों की लहरों को समझरूपी किनारा दे पाए!
कहने, सुनने में थोड़ा अज़ीब सा लगता है, कि न कभी ऐसा हुआ है न होगा। लेकिन सच पूँछो तो हम सभी के साथ कभी न कभी ऐसा हुआ है। वो बात और है कि हम समझ नहीं पाए या पहचान नहीं पाए। याद कीजिये.. अपने स्कूल, कॉलेज के उन दिनों को जहां हम कैंटीन में, पार्क में, क्लासरूम के फ्री पीरियड में अपने ख्यालों के ताने-बाने बुनते ही चले जाते थे! कभी कोई बात अधूरी छूट जाती तो कोई ऐसी जगह की तलाश रहती, जहाँ दोस्त हो, ख़ुशनुम्मा माहौल हो, कोई रोक-टोक न हो । देखा जाये तो एक ही जग़ह थी जो थोड़ी बहुत मिलती जुलती सी लगती थी! जहाँ एक कोने में चुपके से बातें होती, जहाँ एक नज़र हमेशा इस बात का ध्यान रखती, कि कोई बच्चा हंसी-ठिठोली तो नहीं कर रहा, जहाँ एक-दूसरे को अपनी बात कहने सुनने के लिए इशारों से काम चलाना पड़ता, जहाँ सवाल तो अनेक होते मगर ज़वाब बहुत कम! होती तो बस एक टीचर, कुर्सी-मेंज, अलमारियां और उन अलमारियों के बीच बंद ताले में रखी कुछ चुनिंदा किताबें। जिन्हे देखकर यूँ लगता कि ये सब किसके लिए हैं, कौन पढ़ता होगा इन सबको? फिर दूसरे ही पल खुदसे ज़वाब दे देते - शायद इतनी बड़ी-मोटी, आकर्षक चित्रों वाली किताबों को पढ़ने वाले बच्चें भी कोई खास ही होंगे! इसलिए ये ताले में बंद हैं।
लेकिन शायद ऐसा ही एक एहसास उस कमरे में रखी हर बेजान चीज़ में भी उमड़ता हो! कि क्या कोई है जो हमारे ऊपर से मायूसी कि इस धूल को उतारे और हमें इन बंद तालों से मुक्त कर ख्यालों कि हवा में साँस लेने दे। क्या कभी ऐसा भी होगा जब किताबों के पन्नों पर उँगलियों की सरहन धीरे-धीरे चलेगी और कहानियों का सफ़र रफ़्तार पकड़ेगा! हंसी-ठिठोली वाले चेहरे, किताबों के समुन्दर की गहराईयों में जाके सूझ-बूझ का मोती निकाल लाएंगे? अनेकों-अनेकों ख़्याल उस कमरे में पड़ी हर चीज़ के मन में शायद आज भी आते होंगे!
मेरे ख़्याल से आप अब तक जान चुके होंगे और अपनी यादों के ऐसे ही किसी कमरे में पहुँच भी चुके होंगे, क्योँकि ऐसा ही एक कमरा हम सभी ने अपने स्कूल कॉलेज में देखा भी हो ! जी हां ..बिल्कुल सही पहचाना आपने - लाइब्रेरी। मुझे आज भी याद है वो दिन जब लाइब्रेरी का पीरियड सप्ताह में एक बार आता, जिसका मतलब था - बिना आवाज़ किये, बिना कोई सवाल ज़वाब किये चुपचाप आकर बैठना और बिना किसी चीज़ को छुए अपना पेंडिंग कोई क्लास्सवर्क या अन्य काम पूरा करना और पीरियड खत्म होते ही चुपचाप वहाँ से चले आना। अगर किसी का मन भी किया किताबों को देखने या पढ़ने का तो टीचर का बोल पड़ना "पीछे रहें सब इस अलमीरा से" या फिर अलमीरा के शीशे से ही किताबों के उन रंगीन कवर पेज़ को देखकर यूँ खुश हो जाना मानो जैसे रिपोर्ट कार्ड में एक्स्ट्रा A+ ग्रेड जुड़ गया हो ! बस रास्ते भर उस कवर पेज़ पर बने चित्र से संबंधित चर्चा करते-करते घर तक पहुँच जाना, मगर उस किताब और उसके अंदर छिपी कहानी तक कभी न पहुँच पाना।
शायद आपके विचार लाइब्रेरी को लेकर इसके विपरीत रहे हो! जहाँ पढ़ने, समझने, विचारों के आदान प्रदान की आज़ादी मिली हो? लेकिन हर परिवेश और शिक्षा इतनी स्वतंत्र नहीं। आज के शिक्षा परिवेश की बात करें तो बहुत कुछ बदल गया है या अभी भी पहले जैसा ही है! यही जानने के लिए कुछ बच्चों से लाइब्रेरी के संदर्भ में चर्चा होने लगी। दरअसल ये जानने का प्रयास किया जा रहा था कि उनकी नज़रिये से लाइब्रेरी का क्या मतलब है? तो ज़वाब आया लाइब्रेरी मतलब:
1. अपनी क्लास में बैठकर कुछ भी करो।
2. ग्राउंड में जाके खेलना, मौज़-मस्ती करना।
3. जहाँ दुनिया की हर किताब रखी हो।
4. जहाँ बच्चें पढाई से थककर आराम करते है।
5. जहाँ सिर्फ नॉर्मल बच्चे जा सकते है।
बच्चों ने बहुत ही आसानी से मुझे बता डाला की बहुत कुछ बदल गया है जैसे - नयी शिक्षा तकनीक, नए इंफ्रास्ट्रक्चर, नया सिलेबस, सब कुछ बदल गया है! हां अगर नहीं बदली तो वो है लाइब्रेरी। जहाँ टीचर कि जगह लाइब्रेरियन ने ले ली, टाटपट्टी की जगह बैंचो ने ले ली, अलमारियों की जगह शेलफो ने ले ली, मगर धूल पड़ी किताबों और लाइब्रेरी में पसरे सन्नाटे की जगह कोई नहीं ले पाया। फिर चाहे वह स्कूल की लाइब्रेरी हो, सरकारी या गैर सरकारी।
क्या लाइब्रेरी सच में ऐसी होती है? तो बहुत से लोग हां में सहमति देंगे क्योंकि लाइब्रेरी ही एकमात्र ऐसी जगह होती है जहाँ चुपचाप बैठकर पढाई पर ध्यान-केंद्रित किया जाता है। लेकिन क्या लाइब्रेरी ऐसी नहीं होनी चाहिए - जहाँ हर उम्र, वर्ग, जाति, धर्म, लिंग के लोगों को आने जाने की आज़ादी हो! पढ़ना सोचना है, तो सोच बदलने के लिए लाइब्रेरियों का बदलना जरूरी है।
समाज के बीच, समाज के लिए, ऐसे नागरिकों का ज़मीनी स्तर से समूह में रहकर विकास कर पाना जहाँ स्वतंत्रता, सम्मान, समानता की बात हो। ये सब सपना सा लगता है मगर दोस्तों मैंने इसे हकीक़त को धरातल पर उतरते देखा है। जहाँ किताबें बच्चों से बातें करती है। बच्चें स्वतंत्रता,समानता, सम्मान से अपने अनुभवों, विचारों, कहानियों को सुनते, पढ़ते, समझते है जहाँ इस बात को लेकर ज़रा भी अलगाव नहीं कि किसको कुछ पड़ना आता है या नहीं, कोई मेरे देश का नागरिक है या नहीं। जहाँ स्वतंत्रता और समानता के छोर का कोई अंत नहीं। दोस्तों ऐसी जगह कहीं और नहीं हमारे भारत देश कि राजधानी और उसके आसपास के राज्यों में काम करने वाली एक (NGO) संस्था The Community Library Project - (TCLP) जहाँ का एक ही मूल मंत्र है, "आप सभी का स्वागत हैं"। लेकिन आख़िरकार स्वागत कैसे और क्या सबकी पहुँच किताबों, सोच-समझ की दुनियाँ तक मुमकिन हैं? ये बात हम आने वाले ब्लॉग के माध्यम जानेंगे।
(Not for books donation. For books donation see)